dilip kumar: भारतीय सिनेमा के शानदार रत्न

सबसे बड़ी फिल्म आई ज़वार भाटा, या जो गई बॉलीवुड में सुपर डुपर फ्लॉप, या उनके काम को लेकर भी बहुत बोला गया, उस समय एक जमाने में एक मैगज़ीन हुआ करती थी फिल्म इंडिया, उन्होन तो ये तक लिख दिया था दिलीप कुमार के बारे में “ये लड़का एक दम पटला सा ऐसा लग रहा है जाने इसने कितने दिनों से खाना ही नहीं खाया है, या मुझे नी लगता इसमें एक्टिंग आती भी है, या बॉम्बेटोकीज़ वालो ने तो बहुत बड़ी गलती करदी अपना पैसा इसमें लगा” के, लेकिन दोस्तो यहा पर एक बात में कहना चाहूंगा कि जितना भी दिग्गरज़ है उनको अपने सुरुवती दिनों में थोड़े बहुत नहीं बल्कि बड़े आलोचना का सामना करना पड़ा उन्हें अपने मेहनत से अपने लगन से सब लोगो को जवाब दिया, चाहे वो लता मंगेश्वर हो या अमिताभ बच्चन

मुझे लगता है कि आप महसूस कर रहे हैं कि हर वो इंसान तो म्हासोह करता है जब उसको लगता है कि उसके आस-पास सब कुछ नकारात्मक हो रहा है, उसका असर उसके दिलो दिमाग में इतना ज्यादा हो जाता है, कि कुछ नया सोचने में हमारा दिमाग ही नहीं चलता तो इसमें आप क्या करते हैं, आप किसी करीबी दोस्त से बात करते हैं, लेकिन सोल्यूशन वहा से भी नहीं मिलता तो फिर अगला कदम हमें लगता है कि फिसिट्रेट मदद कर पाएगा, दिलीप कुमार को अपना इस समय जब वो एक दम एक दम देखेगा उन्हें मनोचिकित्सक से मिलना पड़ा, उसके बाद दिलीप कुमार ने एक फ़िल्म हस्ताक्षर की “आज़ाद“1955 में दी
या अजीब बात है कि इसमे ट्रेजिटी क्वीन मीना कुमारी या ट्रैजिटी किंग दिलीप कुमार साहब, अच्छा मैंने आपको ये तो बता दिया कि दिलीप कुमार साहब ने लाइट हार्टेड फिल्म कोनसी शाइन की थी, लेकिन आपको ये नहीं बताया ना की, जुगनू, देवदाश, बाबुल , दीदार, तराना जैसी त्रिजिक लव स्टोरी में से वो वाली फिल्म कौन सी थी जिसने उनको ट्रैजिटी किंग का खताब दिया वो फिल्म थी ,1948 में सहीद को रिलीस किया या अगर आपने ये फिल्म नहीं देखी या फिर आपकी इसकी कहानी नहीं पता तो मुझे आपको बता दिया गया की , कामिनी कोशल के साथ उन्हें ये फिल्म की थी या इस फिल्म का वो गाना “वतन के राह पे, वतन के नोजवान शहीद हों ” बिल्कुल एपी यही सोच रहे हो कि मैंने तो सुना है ये सोचिए 1948 में वो फिल्म रिलीज हुई थी या आज तक वो गाने लोगो के जवान में है…

दोस्तो एक आर्टिकल मैं पढ़ रहा था , उसमें एक बात लिखी हुई थी दिलीप साहब के बारे में, बहुत ही सादगी पसंद करने वाले इंसान हैं या इतने विनम्र या इतने विनम्र, उनका जिंदगी का असली मतलब यह था कि कभी भी उनकी वजह से किसी को दिक्कत नहीं हो सकती थी जब पाली वाले घर में वो रहते थे, या आपको तो पता है कि फिल्म स्टार का working routine केशा होता है, कोई 9 से 5 वाली तो जॉब नहीं होती कि 5 बजे आपकी छुट्टी होगी या 6 बजे घर आयेगा कभी रात के 3 बजे तक सूदिंग ख़तम होरी तो कभी सुबह के 4 बजे ऐसे में दिलीप साहब जब भी देर से सूदिंग से घर लोटटे थे तो लॉन्च में ही सोफ़े में सो जाते थे, मतलब उन्हें लगता था कि मैं घर जाऊंगा लाइट जलेगी परिवार वालों की जरूरत जगेगी उनको डिस्टर्ब होगा इससे बेहतर ये है कि मैं लाउंज में ही सो जाउ और आप जानते हैं कि सदगी उन्हें विरासत में मिली थी अपनी पिता से, या हम कहे उनके पिता जी ही थे जिनकी वजह से ज्यादातर समय वो सफेद कपडे पहने दीखते थे या अपने अब्बा को देखते देखते इन्हें भी सफ़ेद कपड़ो से प्यार हो गया

एक चीज़ है इतनी सुपर सुपर दुखद प्रेम कहानी देने वाले दिलीप साहब जैसे नदिया के पार, मेला, अंदाज, जोगन, बाबुल, आरज़ू, दीदार, मतलब इतनी हिट फिल्म देने के बावज़ूद क्यू दिलीप साहब को मनोचिकित्सक से मिलना पड़ा वो डिप्रेसन में चले गए तो जैसा कि हम सब जानते हैं कि ट्रेजिक लव स्टोरी में, ट्रैजिक फिल्म में, डेथ सीन तो होता ही होता है, हीरो एंड में मर ही जाता है, इनमें रोल को निभाते निभाते या कहें कि मेथड स्कूल या एक्टिंग करके दिलीप कुमार साहब फिल्मो में जो भी रोल निभाते थे, वो उन्हें इस तरह दिखाते थे इतनी तीव्रता से वो, वो रोल निभाते नहीं थे उसको जीते थे, दिलीप कुमार के मन में इतना घर या गहरा आश्रय आया कि वो डिप्रेसन में चले गए फिर एक बार लंदन उनका जाना हुआ तो क्या एक जेन मने फ़िसिट्रिस्ट ने उन्हें कहा कि देखो ये जो फिल्म आप कर रहे हैं ना ये आपके दिलो या दिमाग पर इतना गहरा आश्रय छोड़ रही है, कि आप कुछ हल्की दिल वाली फिल्म लीजिए आप अपने फिल्मी कैरियर को स्थिर रखना चाहते हैं , कहा मुझे आपको रिकॉन्ड करना पड़े कि आप अपना ये फिल्मी करियर छोड़ दे क्योंकि ये आपको या ज्यादा डिप्रेसन में लेके जाएगा, तो ये एक करण था जिसने दिलीप कुमार को मजबूर किया कि जब वो अगली बार फिल्म साइन करे वो लाइट हार्टेड हो तो अनहोनी शगुन की 1949 में अंदाज़ जिसकी नर्गिस थी राज राहब या यही वो फिल्म थी जिसमें महबूब साहब की डायरेक्ट की गई, जिस राज साहब या दिलीप कुमार ने फ़्ले या आखिरी बार स्क्रीन शेयर की थी

इश्क ना हुआ कोहरा हो जैसा, तुम्हारी शिवा कुछ दिखती ही नहीं” हालांकि कुछ भी नहीं दिखता था सायरा जी को दिलीप साहब की उम्र हम्म आप जानते हैं सिर्फ 12 साल की थी सायरा जी ने पहली बार दिलीप कुमार की फिल्म देखी या तब से वो उन्हें दीवानों की तरह चाहने लगी थी उमर के साथ बढ़ते बढ़ते वो पागल पैन इतना खराब हो गया था कि शारा जी ने सोच लिया था कि सदी करुँगी तो यही सच से जब शायरा जी का ये पागल पैन दिलीप साहब तक पहुंच गया तो उनको कहा मेरे सफेद होते बालो का तो फ़िक्र करो वो इस लिए है क्योंकि जब शारा जी ने दिलीप साहब से कहा था कि मैं उनसे सदी करना चाहती थी हु दिलीप साहब की उमर थी 44 साल या शारा जी सिर्फ 22 साल मतलब 22 साल का अंतर, दिलीप साहब बिल्कुल भी दिलचस्बी नहीं दिखा रहे थे शारा जी पर, पर वो कहा मानने वाली थी ,उनको इम्प्रेस करने के लिए हर एक छोटी सी छोटी पसंद ना पसंद, यहां तक ​​कि उनको इम्प्रेस करने के लिए उनको उर्दू या पर्सन लैंग्वेज भी सीखी और finaly दोनों ने 1966 में सदी कर ली,

dilip kumardilip kumar and madhubala love story

मन में पता नहीं कि एक सवाल सा उठता है जब आप दिगज़ एक्टर के बारे में पड़ते हैं उनके बारे में जानते हैं उनके इंटरव्यू देखते हैं मैं बात कर रहा हूं दिलीप साहब की, जब उनसे पूछा जाता था कि अपनी इतनी फिल्मों का मतलब जिसे कहते हैं ना कि चोटी पर खड़े रहे आप ना जाने कितने साल, तो क्या फीलिंग्स होती हैं तो जवाब में ट्रेजिटी किंग अभिनय समरथ ये बोले ,तो मैं अगर अपने करियर को देखता हूं तो सेटिस्फेक्शन हो ता है कि इतना भी बुरा कम नहीं किया है मैंने, लीजेंड है वाकाई लीजेंड है या जब उन्हें कहा जाता है कि सर आप तो लीजेंड हैं या वो पलट के कहते हैं कि आदमी हूं आदमी ही रहने दीजिए ,ओ माय गॉड ,इतने विनम्र इतने डाउन टू अर्थ हैं, यही तो क्वालिटी होती है ,जो एक इंसान को एक अच्छा अभिनेता तो बनता है ,लेकिन इसे पूरा करें एक अच्छा इंसान बनता है

क्यू एसा कहते थे कि दिलीप साहब की मुझे अपनी फिल्म का कोई गाना अच्छा नहीं लगता था, यह वास्तव में एक स्वस्थ संकेत था कि वो गाना उम्र के हिसाब से सुपर डुपर हिट होगा बताता हूं, उनकी ना अक्षर नोक झोक चलती रहती थी नोशाद साहब से हम उनको यही कहते थे नर्गिश ऐप की नोशाद को निम्मी को नादिरा को मतलब मेरी जितनी भी को स्टार होती है ना उनको अच्छा से अच्छा गाना देते हैं या मुझे हमसा अजीब सा मतलब एसा की फ्लॉप होने वाला या इस्मे नोशाद शब कहते थे द न्ही न्ही मी ईएसए नहि करता , वेसे होता ये था अक्सर जो गाना दिलीप साहब को अपनी फिल्म का गाना नहीं लगता था, जबकि गाना उम्र में चल रहा था, सुपर डुपर हिट हो जाता था, लोगों के जुबान पर चढ़ जाता था या इसका एक एग्जाम पाल, उनकी आखिरी फिल्म से जुदा भी है अगर आपको याद हो तो 1998 में रेखा की ओपोजेटिक फिल्म आई थी किला दिलीप साहब की आखिरी फिल्म जिसमें उन्हें डब्बल रोल किया था फिल्म का एक गाना था “कुर्ते के बय्या को ऊपर चढ़िका, मस्ती में रहते हैं पनवा छविके वा भाई वा वा भाई वा तो ये वा भाई वा है ना लोगो के जुबान पर अच्छे से चढ़ गया था फिल्म के रिलीज होने के बाद दिलीप साहब का जाना हुआ पाकिस्तान अपने किसी जानकर के वाहा पर उनकी ग्रेंड डेटर थी 1.5 साल की तो जब दिलीप साहब जहां पर थे तो उन्हें नहीं जाना देखा कि वो 1.5 साल की बची है, देखे जरूरी है, तो इन्हें बड़ी हेरानी हुई है कि मैं बार-बार बची हूं, मतलब कोई बचाए नहीं, किसी ताकत से मिलते हुए रोते हुए पास नहीं जाऊंगी, ऐसा कोई नहीं एक्सप्रेशन नहीं था ताकती लगे हुए उन्हें देखे जरूरी है तो इन्होने उन्हें खिलाना चाहा तो जैसे ही इन्होने उनकी ट्रैफ हाथ बढ़ाया तो वो खाती है वाह भाई वा, ये सुनते ही दिलीप साहब कहते हैं कि मुझे लगा कि ये विशेष गाना इसमे मुझे आना भी नहीं चाहता था ये फिल्म के निर्देशक उमेश के बार बार प्रीशोराइज करने पर इस गाने में आए, सोचिए एक 1.5 साल की बची तक उनके गाने के बोल बोल रही थी.

dilip kumar and madhubala love story

अगर मैंने आपसे पूछा मुगले आजम फिल्म देखी है अपने तो ऐप शायद एपी मुझे ये बोलोगे कि आप हमसे ये पूछिए कि कितनी बार देखी है, अच्छा वेसे आपको इस बारे में पता है दिलीप साहब या मधुबाला जब मुगले आजम फिल्म की शूटिंग कर रहे थे एक साथ एक भी दिलो दोनो के बीच में सेट नहीं होते मतलब जो स्क्रिप्ट में है उसके अलावा दोनों एक दूसरे को हाई हेलो भी नहीं करते थे एक बहुत बड़ी दीवार आ गई थी उनके प्यार के बीच, पर्सनल लाइफ में दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते सदी भी करना चाहते थे लेकिन मधुबाला के पिता फलाह उल्ला खान को ये दोनों का ये रिश्ता पसंद नहीं था या इसी बिच बिया चोपड़ा ने दोनों को लेकर फिल्म आहें की नई डोर फिल्म की शूटिंग शुरू हुई 15 दिन हुए थी कि दीया चोपड़ा ने ये खा की सारी एकजुटता को भोपाल जाना है, कुछ देखने को लेकर शूटिंग के लिए, अब इस बल्ले को लेकर फतह उल्लां ने समस्या खड़ी कर दी है उन्हें खा नहीं मधुबाला तो नहीं जाएगी पर क्या करती फिल्म की मांग थी जानही ​​पड़ रही थी पूरी की पूरी एकजुट होने को तो फाइनली दिया चोपड़ा ने मधुबाला को फिल्म से निकाल के वेजन्ती माला को आहें कर लिया इस बात को लेकर फतहउल्लाखान ने बियारचोपड़ा पर केस दया कर दिया कोर्ट में दिलीप साहब ने बियारचोपड़ा को सपोर्ट किया मतलब उनके फेवर में गवाही दी बस जी फिर क्या था बीएस यही बाद दिल में लेगी मधुबाला, जब दिलीप साहब ने उनसे कहा कि मुझसे सदी करोगी तो मधुबाला ने कहां कहा तुम मेरे पिता से माफ़ी मांगो तभी मैं तुमसे सदी करूंगी, तो बीएसएस ना दिलीप साहब ने माफ़ी मांगी ना इधर मधुबाला ने हन की या आख़िरकार 1966 दिलीप साहब ने कंपनी बानो से सदी कर ली
आखिर क्यों नहीं भुला पाटे थे दिलीप साहब बॉम्बे टोक्यो में बिताए गए अपने इनिसिएल दिनों को असल में एक दम जैसा घरो में होता है ना फैमली मेंबर के अदतो को उनके रहन शान पर हर बात का ध्यान होता है घर के मुखिया को या फाई घर में जो माँ होती है उनको, तो कुछ ऐसा ही माहोल था बॉम्बे टोकिस में जिसका मालिक था देविका रानी या उसके दिलीप साहब ने अपने एक इंटरव्यू में बताया था, देखते थे हम कोई चमक धमक वाली फिर से या कोई भड़कीली टाइप की कोई ड्रेस पहन कर जते थे तो 100 रुपये फाइन लग जाता था या अगर गलती से आपकी शर्ट या फिर पेंट गंदी होती थी तो इसपर भी निर्देश मिलता है कि कल से ढुंग के कपडे फैन के आना, या कपडे साफ सुथरे होने चाहिए, या फिर कपड़ो पर भी नहीं दिलीप साहब कहते हैं कि देविका रानी की बातों पर भी ध्यान दिया जाता था एक बार हुआ यू कि इनहोन देविका रानी के सिग्रेट पेकेट में से एक सिग्रेट निकल ली उन्हें सिग्रेट पाइन की बहुत आदत थी, मतलब दिलीप साहब को नहीं देविका रानी को बस जी ठीक लग गया इनपार ये फाइन सिगरेट निकालने के लिए नहीं लगा था देविका रानी ने उनसे पूछा तुम आदतन सिगरेट पीते हो क्या, जवाब में इन्होन खा नहीं, तो अनहोने खा जब आदत ही नहीं सिगरेट पीने की तो फिर आज क्यों पी रहे हो इसके लिए तुम ठीक हो लग गया है कि आदत न पड़े, खा मिलता है इस तरह के लोग आज कल की कोई किसी की आदत को सुधारे मिला घरो में हमने देखा कि जब मम्मी पापा चाय पिते हैं या बच्चे अपना हाथ चाय के गिलास की तरफ बढ़ाते हैं तो देखते हैं देखो ये तुम्हारे लिए नहीं है, हमें आदत पड़ गई है हमारी बात अलग है लेकिन तुम्हें कोई जरूरत नहीं लगती है ना इस तरह की बात सुकर दिलीप साहब को हमारे दोर पर बॉम्बे टाइप्स में कितना अच्छा माहौल मिला होगा

Leave a comment